"तुम, तीखी रोशनी सी थी...
ढलते हुए आफ़ताब और समंदर के वस्ल से बने उफुक से -
उभरी हुई,
और, अब ये यादें तुम्हारी ज़हन में...
किसी दरख़्त की सूखी पत्तियों सी है, ज़मीन पर - बिखरी हुई।
जिन्हे सबा जब चीरते हुई गुज़रती है, तो शोर होता है...
आज़ादी का शोर - जैसे क़फ़स टूट रहें हो...
संग-ओ-खिश्त से चिने हुए क़फ़स...
जिनमें तुम्हारा इश्क़ कहीं कैद करके रखा था।
तुम, औरों से मुख़्तलिफ़ थीं, बेहद...
महज़ लफ़्ज़ नहीं, नज़्म थी - एक मक़सद,
जिसके पूरे न होने का मआल ये है कि,
तारे छेड़ दी गई थी जिस कल्ब की,
वो मरम्मत मांगता है...
पर रह रह कर अभी भी चांद को नहीं,
अपने मेहवश को पुकारता है।
तुम, तबस्सुम सी मख़मल थी, एक ख्वाहिश...
महज़ गुल या रोशनदान नहीं, आराइश।
और अब आलम ये है के मेरे अयाल से,
भी हर एक शख़्स मुझसे खफ़ा है,
तो गैर तो क्या ही बात करेंगे;
पर मैं अभी भी मुंतजिर हूं तुम्हारे लिए...
मसर्रत में नहीं हूं - लेकिन मेरे ख्याल से,
देखो, बस ये आखिरी दफा है।"
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